Monday, January 24, 2011

अनुवाद और सांस्कृतिक परि‍प्रेक्ष्‍य

अनुवाद, या अनुवचन, या अनुकथन की परम्परा भारत देश में बहुत प्राचीन है। विभन्न राष्ट्रों के लोग अपने यहाँ की अनुवाद परम्परा को प्राचीनतम साबित करने के लिए विभिन्न राजाओं के शासन काल के द्विभाषी-त्रि‍भाषी शिलालेखों का उल्लेख करते हैं। भारतीय अध्येताओं को इस दिशा में अधिक उद्यम करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। प्राक्वैदिक काल की लोक संस्कृति और लोकजीवन में, वैदिक काल के गुरुकुल के अध्यापन कौशल में, और फिर ऋग्वेद की ऋचाओं का सामवेद में सांगीतिक उपयोग, यजुर्वेद में यज्ञ विधानादिक उपयोग, तथा अथर्ववेद में विधागत परिवर्तनात्मक उपयोग में, उत्तरवैदिक काल के लोकजीवन के कृषि संस्कृति से वाणिज्य संस्कृति की ओर प्रवेश में, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों के विवेचन में, निरुक्त, निघण्टु की रचना प्रक्रिया में, बौद्ध धर्म की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति में, अश्वघोष की रचना वज्रसूची के प्रचार-प्रसार में, सिद्ध साहित्य के विवेचन में, रामायण, महाभारत, के विभिन्न अनुवादों में हम इस परम्परा को ढूँढते हुए आगे तक आ सकते हैं।
कहा जाता है कि अनुवाद की सबसे बड़ी आवश्यकता धर्म, दर्शन, साहित्य, कला के प्रचार हेतु हुई। बात सच भी है। पर इससे भी पहले अनुवाद की प्राथमिक आवश्यकता हुई, मनुष्यों और मानव समुदायों के बीच आपसी समझ बनाने में, ताकि वे एक दूसरे की भावनाओं और अपेक्षाओं को समझ सकें। एक दूसरे को जानने की यह पूरी प्रक्रिया थोड़ी जटिल है। यह कई सोपानों में तय हो पाता है। वस्तुतः एक दूसरे को जानने का अर्थ, उसका नाम, गाँव, वर्ण, मुखमण्डल जान लेना नहीं होता, इस उद्यम का तात्पर्य उस पूरे पैकेज से है, जो उस जनपद की पूरी संस्कृति को जानने से सम्पन्न होता है। यह संस्कृति किसी समाज का ऐसा घटक है, जो जनजीवन के आहार-व्यवहार, धर्म, दर्शन, साहित्य, कला...सब में समाहित रहता है।
जाहिर है कि किसी व्यक्ति को सम्पूर्णता में जानने की पूरी प्रक्रिया उस व्यक्ति को उसके जनपद और उसकी संस्कृति के साथ जानने से ही पूर्ण होगी। किसी मनुष्य की बोली-बानी, विभिन्न परिस्थितियों में प्रमुख उसके भाषा फलक, उसके द्वारा प्रयुक्त शब्दाविलयों, और किसी विषय-व्यक्ति-परिस्थिति पर उसकी दर्ज क्रिया-प्रतिक्रया से भी उसका आचार-विचार-संस्कार जाना जाता है। इस बात को सम्प्रेषण के कई फलक के उदाहरण द्वारा इस तरह स्पष्ट किया जा सकता है-
ओ ए केशव, एक गिलास पानी ले आओ!
केशव, एक गिलास पानी ले आना!
केशव जी एक गिलास पानी ले आएँगे!
केशव भाई, जरा एक गिलास पानी ले आएँगे!
भाई साहब, एक गिलास पानी की जरूरत है!
ये सारे वाक्य एक ही भाषा में कहे गए हैं। लेकिन हर वाक्य में सम्बोध्य और सम्बोधक के आपसी सम्बन्ध और सम्बोधक के संस्कार परिलक्षित हैं। पहले दोनों वाक्य में स्पष्ट है कि सम्बोधक और सम्बोध्य का रिश्ता नियोजक और मातहत का है। लेकिन पहले वाक्य के सम्बोधक की नजर में सम्बोध्य के प्रति मानवीय भाव नहीं है। जबकि दूसरे वाक्य में वह भाव भी है। तीसरे चौथे वाक्य का संस्कार ऐसा है कि सम्बोधक-सम्बोध्य का नियोक्ता भी हो सकता है, जो बहुत भला इनसान है, या फिर मित्र भी हो सकता है। पाँचवे वाक्य से साफ जाहिर होता है कि सम्बोधक और सम्बोध्य का रिश्ता यदि पुराना है, और सम्बोधक का ओहदा सम्बोध्य से बड़ा है, तो निश्चय ही वह व्यक्ति अत्यन्त सज्जन और सरल है, या सम्बोधक कोई गैर है, तो वह अनुनय कर रहा है।
यह स्थिति अलग अलग तरीकों से हर भाषा में उपस्थित हो सकती है। ऐसी परिस्थिति में अनुवादक के समक्ष बहुत बड़ी चुनौती खड़ी होती है। यहीं आकर हम मूल रचनाकार के उस मौलिक भाव और आचरण को भी समझ पाते हैं, जिससे निर्देशित होकर वह अपने द्वारा सृजित पात्रों को भाषा देता है, या फिर उन पात्रों के आचरण पर अपनी टिप्पणी करता है। यहाँ तक कि उन पात्रों के सृजन सन्धान में भी वह रचनाकार जिनका ब्रह्मा होता है, उसके नामकरण, चरित्र-चित्रण मनोदशा, सामाजिक-आर्थिक हैसियत, कथोपकथन...सब कुछ में हम उस रचनाकार का और रचनाकार द्वारा रचेे गए समाज के उद्भव-परिवेश का संस्कार ढूँढ लेते हैं।
बात सच है कि कोई रचनाकार समाज में जो देखता-सुनता-भोगता है, अपनी रचनाओं में उसे ही प्रभावी ढंग से अंकित करता है। जन-जन तक वस्तुस्थिति का असली रूप प्रस्तुत कर आम नागरिक की सुसुप्त चेतना को उदबुद्ध करने की चेष्टा करता है, स्थगन से भरे सामाजिक व्यवस्था में हलचल पैदा करता है। जीवन-यापन के शान्त तालाब में बुराइयों की, रूढ़ियों की, मानव विरोधी आचरणों की, मानव मूल्यों के अवमूल्यन की जो काई-कदाली जम गई होती है, उसमें खरोंच डालकर, कंकड़ी मारकर उसकी तहों को काटता है और सामाजिक परिदृश्य का परिष्कार करना चाहता है। इन तमाम बातों में भाषा-व्यवहार की जितनी भी परतें होती हैं, वह पूरी तरह समकालीन समाज की सांस्कृतिक संरचनाओं से लिपटी रहती हैं। पाठ चाहे साहित्य का हो, सामाजिक विज्ञान का हो या इतिहास भूगोल का...भाषा के सांस्कृतिक रचाव से वह पृथक नहीं हो सकती। इसलिए अनुवाद के समय संस्कृति एक अहम त्तव के रूप में सामने आती है। अनुवादक इसकी गरिमा-संरक्षण में अपनी समस्त ऊर्जा और कौशल झोंक देता है।
किसी पाठ का अनुवाद करना, केवल उनकी शब्दाविलयों, क्रियापदों, और सन्देशों का उल्था भर नहीं होता, बल्कि उस पूरी प्रक्रिया में भाषावैज्ञानिक, व्याकरणिक, और कोशीय उपस्करों के उपयोग के अलावा एक अकृश्य काम होता रहता है, वह है मूल पाठ की संस्कृति का अनुवाद।
उक्त उदाहरणों में, या ऐसे और भी कई उदाहरण जो सोचे जा सकते हैं, जिसमें शब्दों, पदों का केवल कोशीय अर्थ पर्याप्त नहीं होगा। कोशीय अर्थों में हिन्दी के शब्द--चाची, ताई, मौसी, मामी, बुआ सबके लिए अंग्रेजी का एक शब्द है आण्टी, पर इन सबके सांस्कृतिक सन्दर्भ एक नहीं हैं। भाषा के सन्दर्भ में संस्कृति बहुत बड़ा मसला है। भारतीय सन्दर्भ में सम्बन्धों को लेकर ही चलें, तो इसका व्याकरण इतने स्तरों का वैविध्य लिए हुए है, और उसका अन्वयार्थ इतना विराट है कि कोशीय अर्थ उस व्याख्या को ध्‍वनि‍त नहीं कर सकता। परराष्ट्रीय भाषाओं की संस्कृति के साथ तुलना करके देखें तो साफ-साफ दिखाई देता है कि जिस जनपद में साली, सरहज, भाभी, बहू, चाचा, ताउ, मामा, मौसा फूफा जैसे सम्बन्ध ही नहीं हैं, वहाँ इन सम्बन्धों के साथ किए जाने वाले आचार-विचारों की क्या व्याख्या होगी! वैज्ञानिक, ज्ञानात्मक, वाणिज्यिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, सर्वेक्षणपरक, गणितीय पाठ अर्थात जिसका सम्बन्ध केवल भाषा और तथ्य से है, उनमें सांस्कृतिक सन्दर्भ की बातें तो केवल भाषा-व्यवहार और तथ्य के प्रति रचनाकार के रवैये से जानी जाती है, पर साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक पाठ, जिसका सीधा सम्बन्ध सामाजिक जीवन-यापन, आचार-विचार, राग-विराग, लोक-व्यवहार और आचरण-अस्मि‍ता, बिम्ब-प्रतीक, अलंकार-मुहावरे, भाषा वैविध्य, उक्ति वैचित्र्य से है, वहाँ पाठ का सांस्कृतिक सन्दर्भ बड़ी व्याख्या की माँग करने लगता है।
पश्चिमी देशों में नाते रिश्तों की उतनी शाखाएँ नहीं हैं जितनी भारत में हैं। केवल भारत की ही बात करें तो मिथिलांचल की स्त्रि‍याँ अपने जेठ और मामा ससुर से उस हद तक परदा और परहेज करती हैं जैसे दोनों एक दूसरे के लिए अछूत हों, ऐसा देश के अन्य प्रान्तों में नहीं है। इसका सीधा सम्बन्ध वहाँ की दीर्घकालीन प्रथा से है। फिर पूरे बिहार का सन्दर्भ लें तो छोटे रिश्ते की बहुएँ घर परिवार या समाज के मर्दों के समक्ष सामान्य स्थिति में अपनी बात रखने के लिए भी मुँह नहीं खोलती, वे घर की बुजुर्ग स्‍त्रि‍यों या बच्चों के माध्यम से अपनी बात पहुँचवाती हैं, ऐसा देश के और क्षेत्रों में नहीं है। बिहार, उत्तर प्रदेश में जीजा साली के रिश्तों में जितना खुलापन और रसपूर्ण परिहास भरा रहता है वह केरल में नहीं होता, वहाँ सालियाँ अपने बड़े बहनोई को बड़े भाई का दर्जा देती हैं! फिर से मिथिलांचल की तरफ चलें, वहाँ सालियों के भी दो दर्जे हैं--पत्नी की बड़ी बहन के साथ सास जैसा व्यवहार किया जाता है जबकि पत्नी की छोटी बहन के साथ पूरा खुलापन रहता है। बिहार के कुछ खण्डों में मामी-भान्जे के साथ भी परिहास के रिश्ते रहते हैं। छोटानागपुर के कुछ खण्डों में नानी-नाती के बीच परिहास होता हैं। उड़ीसा के कुछ क्षेत्रों में 'दूध' का रूढ़ अर्थ 'स्तन' हो गया है, वहाँ पायस को 'दूध' माना जाता है, मिथिलांचल में स्त्रि‍यों का श्मशान घाट जाना विर्जत है, इस्लाम में स्त्रि‍यों का मजार-क्षेत्र में प्रवेश विर्जत है। पश्चिमी देशों की नागरिक-समझ इस बात से पूरी तरह अनुकूलित हो चुकी है कि दो में से किसी एक के, अथवा दोनों के विवाह-पूर्व विवाहेतर सम्बन्ध की आशंका से अपना वर्तमान नष्ट न किया जाए, पर ऐसा भारतीय स्त्री-पुरुष सामान्य स्थिति में नहीं सोच सकता।...
इन तमाम बातों से आज यदि वे लोग भी वाकिफ हैं, जो कभी इस क्षेत्र में नहीं गए, और उस क्षेत्र की भाषा भी नहीं जानते तो इसका श्रेय अनुवाद को ही जाता है। अलग से कहने की आवश्यकता नहीं, कि ये जानकारियाँ कोई रचनाकार अपने पाठ में सूक्ति की तरह नहीं देते, ये सारे तिय उस पाठ में समाहित होते हैं और अनुवादक को इन सबके संरक्षण और सम्वर्द्धन का ध्यान रखना होता है। ऐसा कहना चाहिए कि हर पाठ अनूदित भाषा के नए रूप में आकर भावक को यह सुअवसर प्रदान करता है कि वह लक्ष्य भाषा में विवेचित पाठ के सांस्कृति सन्दर्भ, सामाजिक आचार-विचार, जीवन-यापन, रहन-सहन, प्रेम-संघर्ष, द्वन्द्व-दुविधा के मूल स्वरूप से परिचय करे, उसे जाने, और अपने भौगोलिक परिवेश और सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भों से उसका साक्षात्कार करते हुए, अपना तथा अपनी सांस्कृतिक समझ का विकास करे। दरअसल संस्कृति एक अमूर्त, सूक्ष्म और अपरिभाषेय बिम्ब है, इसे समझा तो जा सकता है, पर ऊँगली रखकर बताया जाना कठिन है कि संस्कृति यह है, एक जगह बता भी दें कि इस भूखण्ड, इस समुदाय के लोगों की संस्कृति यह है, तो अगले ही क्षण फिर दूसरी परिभाषा देनी पड़ जाएगी। मानव-सभ्यता के विकास-क्रम सदियों के आचार-विचार, आहार-व्यवहार, रहन-सहन, जीवन-यापन, सम्बन्ध-सरोकार की प्रथा-परम्परा की परिणति और प्रतिफल की एक शृंखला है जो मनुष्य के जीवन की तरह ही गतिशील और अग्रोन्मुख होती है और इनकी संचरण क्षमता इतनी तेज होती है कि किस रास्ते, किस क्षण इसमें नए किसलय खिल जाएँ, पता नहीं चलता। आज सम्पूर्ण भारतीय परिवेश के पहनाने-ओढावे, खान-पान, बोली-बानी, आहार-व्यवहार में आई सार्वत्रि‍कता के मद्देनजर इस बात तो रेखांकित करना बड़ा आसान होगा।
एक समय साहित्य अकादेमी के सम्मान समारोह में अपने अध्यक्षीय भाषण में यू.आर.अनन्तमूर्ति‍ ने एक वक्तव्य दिया था कि 'आज हमारा भारतीय साहित्य बाइस भाषाओं में एक बात करता है(उन दिनों साहित्य अकादमी बाइस भाषाओं के रचनाकारों को सम्मानित करती थी)।' कहना न होगा कि उनके इस विचार-वक्तव्य का प्राथमिक आधार अनुवाद ही रहा होगा। भारतीय मनीषा में ऐसे कई पुरोधा हुए हैं जिन्हें कई भाषाओं का ज्ञान रहा है, पर अधिकांश लोग ऐसे ही रहे हैं जिन्हें सभी क्षेत्र की भाषाओं का ज्ञान भले न हो, अनुवाद अथवा अन्य स्रोतों से वहाँ की जानकारी हासिल करते रहते हैं।
विश्व फलक पर जब से अनुवाद कार्य और प्रकाशन व्यवस्था का चलन हुआ है, संसार के कोने-कोने से विचार की यात्रा तेजी से होने लगी है। संचार-माध्यम के अपरिमेय संचरण के कारण जिस तीव्रता से विचार का प्रसार हुआ, उसमें वहाँ की संस्कृति का भी प्रभावित हो जाना लाजिमी था। सामान्य जन की चित्त-वृत्ति, जीवन-वृत्ति और समकालीन शासन-व्यवस्था के दस्तावेज के रूप में साहित्य, समाज विज्ञान, अथवा इतिहास के पृष्ठों में आज तक जो कुछ भी दर्ज हुआ है, और होता चला जा रहा है उन सबका सीधा सम्बन्ध समाज और संस्कृति से है। नागरिक परिवेश की वर्चस्वगत नीतियों, संस्कृति और समाजशास्त्र से साहित्य के अन्तर्संबन्धों, वर्चस्व और प्रतिरोध के नागरिक संघर्षों को लेकर रेमण्ड वि‍लि‍यम्स, अन्तोनियो ग्राम्शी, ई-पी-थामसन, रिचर्ड होगार्ड ने पर्याप्त विचार किया है, वह यहाँ विचार का विषय नहीं है। यहाँ केवल उन प्रसंगों का सहयोग भर लेना है। अन्तोनियो ग्राम्शी की राय में कोई भाषा, जनपद की संस्कृति का ही रूप होती है। उन्होंने समान भाषा-भाषी लोगों की अभिव्यक्ति में ऐतिहासिक और सामाजिक रहने वाले भाषाई अन्तर को मुक्त कण्ठ से स्वीकारा है। यह अन्तर व्यक्ति की सामाजिक हैसियत, ऐतिहासिक सूत्र पारम्परिक सम्बन्ध पद्धति, वर्ग-भेद के कारण भाषा प्रयोग की वि‍धि‍याँ, आर्थिक-शैक्षिक हैसियत के कारण उसके बोध का स्तर आदि पर निर्भर करता है। इसके साथ-साथ संचार-माध्यमों के फैलाव और अनुवाद-कार्य द्वारा जो विचारों का वि‍नि‍मय स्थानान्तरण होता है, और आगत विचारों का उस सामाजिक परिवेश में अधि‍ग्रहण होता है, उससे वहाँ की संस्कृति, वहाँ के नागरिक जीवन की प्रक्रिया प्रभावित हुए बगैर नहीं रह पाती है। नागरिक परिदृश्य का रहन-सहन, वेश-भूषा, खान-पान, आहार-व्यवहार, तीज-त्यौहार...सब के सब उससे प्रभावित होता है। यह बात सच है कि हर जनपद के साहित्य का सीधा सम्बन्ध वहाँ की भाषा में अनुगुम्फित होता है, किन्तु इसके साथ सचाई यह भी है कि वह भाषा खुद ही वहाँ के नागरिक जीवन की उपज होती है। हर क्षेत्र् की भाषा के सुस्थिर स्वरूप में वहाँ के नागरिक जीवन का अतीत मौजूद रहता है, जो जनपदीय संस्कृति से रससिक्त रहती है। इस रास्ते चलकर यह कहा जाना चाहिए कि अनुवाद के रास्ते चलकर जो वैचारिक और सांस्कृतिक सम्वर्द्धन समाज में होता है, उसका असर पुनर्सन्धान के रूप में बाद के मौलिक लेखन पर भी पड़ने लगता है।
सामाजिक जीवन-यापन के दौर में यह देखा गया है कि चाहे नागरिक जीवन के संघर्ष के उत्पाद के रूप में हो, 'विचारों' के समागत स्वरूप की सार्वजनिक स्वीकृति के रूप में, हर समय वर्चस्ववादी परम्परा के समानान्तर एक प्रतिरोधी शक्ति खड़ी होती है, जो स्थापित परम्परा की मजबूत और जड़ीभूत ताकत से जूझती हुई अपने नए मूल्य की परम्परा कायम करने लगती है। फलस्वरूप नागरिक जीवन एक नए भाव-बोध के साथ अपना जीवन संघर्ष शुरू करता है।
अधिक पीछे न जाएँ, भक्ति-आन्दोलन पर ही नजर डालें तो वहाँ सांस्कृतिक उत्थान और नागरिक जीवन के संघर्ष की छवियाँ अनेक रूपों में सामने आती हैं। अपने विराट और विस्तृत चिन्तन के साथ मैनेजर पाण्डेय ने गौर किया कि भारतेन्दु युग के बालकृष्ण भट्ट भक्तिकाल के साहित्य को 'जनसमूह के हृदय-विकास' की रचना स्वीकरते हुए उसे अपने युग का श्रेष्ठ साहित्य माना है। उनकी नजर में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी भक्ति-काव्य का अनुशीलन करते हुए वैसा साहित्य विवेक विकसित किया जिस कारण वे रीतिवादी और जनविरोधी साहित्य का डटकर मुकाबला कर सके। प्रो- मैनेजर पाण्डेय ने स्पष्टतः स्वीकार किया कि सामान्य जनता की संस्कृति से उन भक्त कवियों की कविता निर्मित हुई थी...सन्त-काव्य में पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बर, जातिभेद, सामाजिक विषमता और ऊँच-नीच के भेद-भाव का जो खण्डन तथा विरोध है, वह सामन्ती समाज-व्यवस्था और उसकी विचारधारा के विरुद्ध विद्रोह की अभिव्यक्ति है...।
भारतीय परिदृश्य में वस्तुतः भक्ति आन्दोलन ऐसी घटना है जिससे न केवल भारतीय साहित्य को बल्कि भारतीय संस्कृति और भारत के नागरिक जीवन को भी एक नई दिशा दी। जाति, सम्प्रदाय, ओहदा, सामाजिक हैसियत, आचार-विचार, रहन-सहन आदि की हदबन्दी के अलावा बाकी भी कई सीमाओं, दीवारों को तोड़कर इस आन्दोलन ने एक कर दिया। कई धर्मों, जातियों, कर्मों के कवियों द्वारा इस समय का साहित्य लिखा गया। कबीर, तुकाराम, नामदेव, रैदास, आखो, दादू, रहीम, रसखान, मीरा, अक्का महादेवी आदि बहुभाषिक तो थे ही, इसके अलावा ये सब के सब विभिन्न जाति और सम्प्रदाय के थे। बुनकर, दर्जी, सोनार, चर्मकार, धोबी, शिकारी आदि कई वर्गों से आए ये लोग एक तरफ से पण्डितवाद और पुराणवाद की वैचारिक पृष्ठभूमि के निषेध के साथ आगे बढ़े। जाहिर है कि एक समन्वित भारत और समग्र मानवीय अवधारणा के साथ इन सबकी सांस्कृतिक दृष्टि आगे बढ़ रही थी। ध्यातव्य है कि इसी दौर में रामायण और महाभारत का अनुवाद अथवा पुनर्सृजन विभिन्न आधुनिक भारतीय भाषाओं में हुआ, जिनमें से अधिकांश आज अपनी-अपनी भाषा का मौलिक और आधार ग्रन्थ माना जाता है। गुरु नानक ने 'गुरु ग्रन्थ साहिब' में विभिन्न धर्म ग्रन्थों से पद लेकर संकलित किया, दक्षिण में बासवेश्वर, निन्गैय्या कम्बन, एचुत्तायन, उत्तर में तुलसीदास, शंकरदेव, कृतिवास, चण्डीदास, पश्चिम में मीरा, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, नामदेव आदि इस धारा के पुरोधा माने गए। हिन्दू मुसलमान का भेद समाप्त हुआ। लोक नाट्य के माध्यम से भक्ति सन्देश का फैलाव होने लगा। भेद-भाव मिटाने में इस पद्धति का असर भी कम नहीं हुआ। आगे चलकर सती-प्रथा, छुआछूत, वर्ण-विभेद आदि सामाजिक कुरीतियों पर भी सांस्कृतिक आन्दोलन की शृंखला का सीधा प्रभाव पड़ा।
गरज कि अनुवाद के जरिए जब कोई साहित्य किसी दूसरी भाषा में जाता है तो स्रोत-भाषा का पाठ, लक्ष्य-भाषा में अपने साथ पूरे जनपद के अतीत, परम्परा, रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, आहार-व्यवहार, सम्बन्ध-सरोकार, बिम्ब-प्रतीक, मिथक-यथार्थ, शब्द-संस्कार, पात्रों के वर्ग-संघर्ष, जीवन-संघर्ष, तमाम बातों के साथ ही जाता है। और इतना तो तय है कि हर जनपद का सांस्कृतिक, वैचारिक और व्यावहारिक पहल इन्हीं बातों पर निर्भर करता है। एक बात यह भी है कि अनुवाद के जरिए जब कोई संस्कृति किसी दूसरे परिवेश में पहुँचती है तो वहाँ वह वैसी की वैसी नहींे रह जाती। या तो वह वहाँ की मौजूदा संस्कृति में प्रविष्ट होकर अपने लिए जगह बना लेती है, या वहाँ के नागरिक जीवन की सुविधा के मद्देनजर अपने को पुनर्गठित कर लेती है, या फिर वहाँ की संस्कृति के साथ मिलकर एक अलग ही संस्कृति निर्मित कर देती है। यह स्थिति वाचिक-परम्परा के पाठ के साथ तो कई बार हो जाती है। कभी-कभी सामान्य पाठ के साथ भी होता है। भक्ति-आन्दोलन की कई रचनाएँ इसके उदाहरण हो सकते हैं। प्रचार-प्रसार के दौरान नेपाल, चीन, तिब्बत, खोतानी, ब्रह्मदेश, इण्डोनेशिया, मध्य जावा, बाली द्वीप, मलय द्वीप, सिंहल देश, अरब-इरान, यूरोप आदि में रामकथा का स्वरूप परिवर्तित होते-होते जैसा हो गया है, उसमें यही पद्धति कारगर रही होगी। यदि विश्व फलक पर लोक-साहित्य का अनुशीलन करें तो यह बात और साफ-साफ दिखेगी। कई अफ्रीकी लोक-कथाएँ ऐसी हैं, जो बिहार में या भारत के कई भूखण्डों में अपने स्थूल रूप में एक-से हैं, पर हर भाषा में जाकर वह वहाँ के नागरिक जीवन के साथ रचने-बसने के क्रम में स्थानीय आवरण और वेशभूषा की हो गई हैं। ठीक यही बात भारत के भीतर ही विविध राज्यों-क्षेत्रों की लोक-कथाओं के बारे में कही जा सकती है। यहाँ तक कि रामायण, महाभारत तक का जो अनुवाद विविध भाषाओं में हुआ है, उसमें भी स्थानीय व्यवहार होते गए हैं। और, जब एक ही देश में सांस्कृतिक संचरण का यह वैविध्य हो जाए तो फिर विदेशी भाषाओं के साथ क्यों न हो।
शोधपरक तथ्य है कि प्राचीन काल में रामकथा के सम्पोषकों ने भारत के पड़ोसी देशों में जहाँ-जहाँ अपना व्यापारिक अथवा औपनिवेशिक सम्बन्ध बनाया, वहाँ-वहाँ अपने धर्म-प्रचारक भेजकर रामकथा का प्रचार-प्रसार किया। उत्तर में नेपाल, तिब्बत, चीन और खोतान, पूरब में ब्रह्मदेश, स्याम और चीन, दक्षिणपूर्व में मलय, यव द्वीप, बाली और लंबक आदि के जनजीवन में रामकथा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह दीगर बात है कि उन स्थानों की रामकथा अब वाल्मीकि अथवा तुलसी की रामकथा जैसी नहीं रहीं। वैसे रहे भी क्यों। जब वाल्मीकि की रामकथा से तुलसी की रामकथा भिन्न है, और तुलसी की रामकथा से कृतिवास और कम्बन की रामकथा भिन्न है तो फिर चीन की रामकथा भारत से भिन्न क्यों न हो। अनुवाद और इतिहास की सरणियाँ पार करने के बाद तो इतनी तब्दीलियाँ आ जाती हैं कि कभी-कभी सच, झूठ जैसा लगने लगता है। इस्वी सन के प्रारम्भ के समय कुषाण वंश का राज्य काशी से खोतान तक फैला हुआ था। दूसरी शताब्दी के आते-आते बौद्ध धर्म, बौद्ध साहित्य और बौद्ध संस्कृति का प्रचार मध्य एशिया से चीन तक सब जगह होने लगा था। आगे के वर्षों में नेपाल, और तिब्बत होते हुए भारत के साथ चीन का सम्बन्ध और बढ़ा। तीसरी सदी के आते-आते बौद्ध साहित्य 'अनामक जातकम' का चीनी अनुवाद हुआ जिसमें रामकथा के सूत्र मिलते हैं। आठवीं-नौवीं शताब्दी की उपलब्ध तिब्बती रामायण, नौंवी शताब्दी की खोतानी रामायण से रामकथा के सूत्र मिलते हैं। शोध सूत्रों के आधार पर इसी तरह ब्रह्मदेश, इण्डोनेशिया, मध्य जावा, बाली द्वीप, सिंहल देश, अरब ईरान, यूरोप आदि में रामकथा की मौजूदगी और लोकप्रियता की जानकारी परशुराम चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति विश्व मंच पर' में विस्तार से दी है। इसी तरह उन्होंने बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रचार-प्रसार की सूचनाएँ भी एकत्र्ा की हैं और उनके प्रचार-प्रसार एवं लोकप्रियताओं की व्याख्या दी है। तय है कि पहली-दूसरी शताब्दी के आते-आते बौद्ध-धर्म का प्रचार-प्रसार और तेजी पकड़ चुका था, इसलिए वाजिब ही है कि पहले से संचरित रामकथाओं पर पीछे से आई हुई जातककथाओं के विषय वस्तु आदि का प्रभाव पड़ा हो, या फिर वहीं के कल्पनाशील नागरिकों का रचना-कौशल रहा हो, जिस कारण उन कथाओं में तब्दीली आती गई हो।
प्राक् उपनिवेशकालीन, उपनिवेशकालीन और उत्तर उपनिवेशकालीन भारतीय साहित्य के मद्देनजर भारतीय बौद्धिक मानस का अनुशीलन विस्तृत फलक पर करें तब भी सांस्कृतिक संचरण का विस्तार बड़ी स्पष्टता से दिखता है। वैसे अनुवाद कार्य के उद्देश्य के सम्बन्ध में प्राच्य-पाश्चात्य पुराने नजरियों की तुलना करने पर रोकच सन्दर्भ सामने आता है। इस सन्दर्भ में स्वर्ग-बहिष्कृति की बाइबिल की कथा का उल्लेख करते हुए जेकृ हिल्स मिलर ने अनुवाद को 'सतत निर्वासन की भटकती अवस्था' कही है। भारतीय चिन्तकों के मन में ऐसी चिन्ता कतई, कभी नहीं हुई। कहें कि इस अवधारणा की ओर कभी नजर ही नहीं गई। बहुभाषिकता, बहुसांस्कृतिकता और अनुवाद की समझ भारत के आम नागरिकों के लिए सदा से सहचरी बनी हुई है। अनुकथन, अनुवचन, व्याख्या, विश्लेषण, अन्वय, अर्थ, सार, टीका, भावानुवाद, अनुवाद...कई पदबन्ध यहाँ की मान्यताओं में बसे रहे हैं। भारत में सबसे बड़ी बात यह दिखती रही है कि लोक-कण्ठों में बसे गीतों, कथाओं, गाथाओं, सन्दर्भों का संचार जहाँ-जहाँ हुआ, वहाँ-वहाँ एक नए रूप की संरचना भी हुई। इन अर्थों में हमें सहज स्वीकार्य होना चाहिए कि दो संस्कृतियों, दो पाठों की भाषिक समझ के अन्तर के कारण ही अनुवाद की जरूरत होती है, अर्थात अनुवाद दो संस्कृतियों, दो पाठों के भाषिक, व्यावहारिक अन्तर की मूक स्वीकृति है और सांस्कृतिक सख्य के विस्तारण का प्रयाण है। स्वाधीनता पूर्व के समय की स्थितियों को देखने से तो साफ-साफ तय होता है कि फिरंगियों ने भारतीय मनीषा के धार्मिक, पौराणिक, सांस्कृतिक ग्रन्थों का अनुवाद करवाया ही इसलिए था कि वे यहाँ की संस्कृति को समझ सकें। 'पालिटिक्स आफ ट्रान्सलेशन' का यह बहुत शानदार नमूना है कि किसी भी क्षेत्र विशेष के सामान्य नागरिक की सांस्कृतिक अस्मिता को जाने बगैर वहाँ शासन कर पाना असम्भव है। किसी व्यक्ति के साथ महीनों रहकर आप केवल उस व्यक्ति के उतने दिनों के व्यवहार को जान सकते हैं, लेकिन उस क्षेत्र की संस्कृति को जान लें तो वहाँ की पूरी जनता को जान जाएँगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारतीय विद्वान सदा से कर्मों में विश्वास करते रहे हैं, कर्मों को परिभाषित और महिमामण्डित करने में नहीं। यहाँ अनुवाद कार्य हो अथवा मूल वाचन-लेखन, उन्हें सिर्फ सम्प्रेषण या अभिव्यक्ति समझा गया। शायद यही कारण हो कि प्रस्तुत कथन के पुनर्कथन में यहाँ पर्याप्त छूट ली जाती रही है। आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्येतिहास पर नजर डालें तो साफ दिखता है कि कई नई विधाओं का विकास-विस्तार वहाँ पौराणिक सामग्रियों के पुनकर्थन से ही हुआ है। अकेले रामायण की बात करें तो हमारे यहाँ तुलसीदास, कृतिवास, कम्बन, एचुत्तायन आदि द्वारा रचित रामायण अपनी भाषाओं के मूल ग्रन्थ माने जाते हैं। बहुत बाद में आकर यह कार्य मैथिली भाषा में भी हुआ, जो चन्दा झा, लालदास जैसे विलक्षण कवि ने किया। तथ्य है कि फ्रंास के महान अनुवाद चिन्तक एतीन दोलेत को अनुवाद में छूट लेने की वजह से फाँसी चढ़ा दिया गया था, वैसी परम्परा भारत में अपनाई गई होती, तो भक्तिकाल के सारे रचनाकार फाँसी चढ़ गए होते। सन्त ज्ञानेश्वर के अर्जुन अपने उपदेशक कृष्ण से कहते हैं कि तुम्हारी बात देववाणी में मेरी समझ में नहीं आती, तुम शुद्ध मराठी में अपनी बात समझाओ। गुरु नानक ने 'गुरु ग्रन्थ साहिब' में न जाने कितने सन्तों की बानियों को अपनी भाषा में संकलित किया। महाकवि विद्यापति ने जाने कितने सन्दर्भों को अवहट्ट और मैथिली में तराशा, चन्दवरदायी ने पृथ्वीराज रासो में अपने नायक के लिए अपने राष्ट्रीय सन्दर्भ का उल्लेख किया। अनुवाद के जरिए सांस्कृतिक संचरण की इस विराट शृंखला को ध्यान में रखते हुए हमें थोड़ा और पीछे जाकर देखने की आवश्यकता पड़ेगी, जब बौद्ध साहित्य का प्रचार-प्रसार शुरू हुआ। सर्वास्तिवादी और थेरवादी परम्परा के प्रचार-प्रसार के दौर में चीनी सहित कई भाषाओं में बुद्ध वचनों का अनुवाद हुआ, और कई ग्रन्थ वहाँ से पुनः अनूदित होकर, वहाँ की संस्कृतियों के संस्पर्श के साथ भारत आ गई। भारतीय सन्दर्भ में अनुवाद कार्य के दौरान इस छूट और सांस्कृतिक विस्तार का सदा स्वागत हुआ है। भारत का भाषा-शास्त्र् और केन्द्रीय विषय की प्रमाणिकता के नियन्ता लोग कभी इस चिन्ता में दुबले नहीं हुए कि हमारा मूल कहीं खो जाएगा, यहाँ सदा इन अभिकर्मों को सांस्कृतिक अस्मिता के सन्धान और अनुवाद कार्य की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में देखा गया।
आज इस बात को लेकर सावधान होने की जरूरत है। इस क्रम में इस चिन्ता की भी कोई खास आवश्यकता नहीं कि स्वातन्त्र्योत्तर काल के ब्रिटिशों ने अपनी सत्ता के अहंकार में हमें इतिहासहीन घोषित करने की असफल चेष्टा की। इतिहास गवाह है कि क्रूर और बर्बर शासक अपने शासितों को इतिहासहीन, छिन्नमूल, असभ्य, कुसंस्कृत कहता है। अंग्रेजों ने भी उसे दुहराया। अपने फतबे से उन्होंने भारत की साहित्यिक, सांस्कृतिक भव्यता को अमान्य किया, उसे पिछड़ा और अर्थहीन बताया। ब्रिटिश शासन काल में अपनी भौतिक सुविधाओं के लालच में आए कुछ भारतीय भी तो अंग्रेजीदाँ हो ही गए थे। वे उन्हीं की रुचियों, मन्तव्यों के अनुरक्षक, सम्पोषक हो गए थे। वैसे ही भारतीय बुद्धिवादियों के साथ मिलकर अंग्रेजों ने अनुवाद कार्य की पहरेदारी की, और अपनी रुचि के हिसाब से ऐसे अनुवाद कार्य करवाए और उसे प्रोत्साहन दिया, पुरस्कृत किया, जिनमें भारतीय साहित्य और संस्कृति की गरिमा आहत होती रही। ' एरेन्जमेण्ट्स आफ एन एलाइन्स' शीर्षक अपने लेख में सूजी थारू ने और अपने विश्लेषण में रोमिला थापर ने इन प्रसंगों का विस्तार से उल्लेख किया है।
हमें इन चिन्ताओं में सिर खपाने के बजाय अपनी शक्ति का सकारात्मक उपयोग करना है। यह तो उनके लिए ही शर्म की बात होनी चाहिए कि जिस अनुवाद को उनके चिन्तक, 'निर्वासन की भटकती अवस्था' कहा करते थे, उसी अनुवाद ने उन्हें भारतीय संस्कृति को समझने का हुनर और सुविधा दी और फिर उसी अनुवाद-कार्य में लोमड़ीगिरी करने लगे। हमें यह देखना है कि इन तमाम विडम्बनाओं के बावजूद, इतने-इतने झंझावातों को सहते रहने के बावजूद, भारतीय साहित्य और संस्कृति का वैविध्य और उसकी गरिमा निरन्तर ऊँचाई पाती गई है। और, ऊँचाई देने वाला यह घटक है अनुवाद-कार्य, जो स्वयं अपनी सम्पूर्ण निष्ठा और उज्ज्वलता के साथ आगे बढ़ा जा रहा है। प्राक़ उपनिवेशकालीन सृजन और अनुवाद की उदारता और उपनिवेशकालीन वैचारिक संकीर्णता के संघर्ष के परिणामस्वरूप भी हमारे साहित्य और संस्कृति को कम लाभ नहीं हुआ। इसका श्रेय हमारे यहाँ के बुद्धिजीवियों, रचनाकारों और अनुवादकर्मियों के सकारात्मक सोच को जाता है कि भाषिक और सांस्कृतिक तौर पर पूर्णतया और स्पष्टतया इतनी भिन्नता बने रहने के बावजूद दुनिया के सबसे बड़े गणतन्त्रात्मक राष्ट्र भारत के नागरिकों के मन में अपनी सांस्कृतिक विविधता के प्रति सम्मान भाव बना हुआ है। फणीश्वरनाथ रेणु के 'मैला आँचल' यू-आर- अनन्तमूर्ति‍ के 'संस्कार’' मोहन राकेश के 'अन्धेरे बन्द कमरे' तकषी शिवशंकर पिल्लै के 'क्वैर' श्री लाल शुक्ल के 'रागदरबारी' भालचन्द्र नेमाडे के 'कोसाला' कृष्णा सोबती के 'जि‍न्दगीनामा' राजकमल चैधरी के 'मछली मरी हुई' ललित के 'पृथ्वीपुत्र' गोपीनाथ मोहन्ती के 'परजा' सोहन सिंह शीतल के 'तूताँ वाला खूँह' महाश्वेता देवी के 'अग्निगर्भ' जैसे उपन्यासों और भारतीय साहित्य के अनगिनत कथाकारों, नाटककारों, कवि-चिन्तकों के लेखन में उत्तर उपनिवेशकालीन जिन सांस्कृतिक विरासत की महक और उन्मुक्तता हम सब देख रहे हैं, उसका असली संस्पर्श इतने बड़े बहुभाषी देश के नागरिकों को अनुवाद के सहारे ही मिल रहा हैं। और, हर जनपद की संस्कृतियाँ एक दूसरे को निरन्तर सम्पुष्ट करती जा रही हैं। आसाम अथवा बिहार के नागरिक 'ओणम' की महत्ता, केरल, कर्णाटक के नागरिक 'बिहू' और 'छठ' की महत्ता को समझने लगे हैं, तो अधिकांश श्रेय अनुवाद को ही जाता है।
उल्लेखनीय है कि हर जनपद की भाषा अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के साथ ही महत्त्वपूर्ण होती है। और हर जनपद की सांस्कृतिक धारा मूल पाठ में कई स्तरों तक रची बसी होती है। इस पूरी प्रक्रिया में जब स्रोत-भाषा का सन्देश लक्ष्य-भाषा में पहुँचता है, तब अनुवादक के लाख प्रयास के बावजूद उसकी मौलिकता अपने मूल सन्दर्भ से गहरे जुड़ाव के कारण बची ही रहती है। भाषान्तरण की इसी प्रक्रिया में एक जनपद की संस्कृति का दूसरी भाषा की संस्कृति में कायान्तरण होता है। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक देश में दो भाषा-भाषी क्षेत्रों की संस्कृतियों का सम्वर्द्धन और संचरण इसी रास्ते होता है।
इन अर्थों में अनुवाद के जरिए न केवल एक भाषा का सन्देश दूसरी भाषा के पाठक तक पहुँचता है, बल्कि सबसे पहले दो संस्कृतियों का आपस में परिचय होता है, फिर संघर्ष होता है, और, उसके बाद फिर विकास होता है। यह कहने में काई हिचक नहीं होनी चाहिए कि अनुवाद संस्कृतियों और विचारों की सुदूर यात्रा की सरणि भी है, और इस तरह राष्ट्रीय एकीकरण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अधिक पीछे न जाकर सन् 1857 से सन् 1947 तक के नब्बे वर्षों के अनूदित साहित्य पर ही विचार करें, बाते बहुत सफाई से सामने आती हैं। या फिर भारतीय साहित्य के केवल स्वातन्त्र्योत्तरकालीन अनुवाद में बंकिम, शरत, रवीन्द्र, प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन, महाश्वेता, वैकम मुहम्मद बसीर, शिवराम कारन्त, यू आर अनन्तमूर्ति, केसव रेड्डी, पन्नालाल पटेल, समुत्तिरम, भालचन्द्र नेमाडे, कर्तार सिंह दुग्गल, आदि की रचनाओं के विभिन्न भारतीय भाषाओं में हुए अनुवाद को देखकर, राष्ट्रीय फलक पर सांस्कृतिक सौहर्द की जितनी स्पष्ट छवि बनती है, उसका सारा श्रेय अनुवाद कार्य को ही जाता है। आशा की जाती है कि आने वाले कुछ वर्षों में अनुवाद से जुड़े तमाम अभिकरण निश्चय ही बहुत अच्छी तस्वीर पेश करेंगे।

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