Thursday, October 20, 2016

आधुनि‍क द्रोणाचार्यों का नैति‍क पाठ



इक्‍कीसवी शताब्‍दी के प्रारम्‍भ में ही भारत का बौद्धि‍क समाज एकमत हुआ कि‍ वैश्‍वि‍क स्‍पर्द्धा में आगे रहने के लि‍ए अपने अनुसन्‍धान-शि‍क्षण की समृद्ध परम्‍परा को और अधि‍क समृद्ध कि‍या जाए। ज्ञान, वि‍ज्ञान, शोध-आवि‍ष्‍कार में उन्‍नत होने; अपनी धरोहरों को सुरक्षि‍त, संवर्द्धित करने हेतु अपनी शैक्षि‍क-प्रणाली की गुणवत्ता बढ़ाना अनि‍वार्य है। इसलि‍ए देश के शैक्षि‍क संस्‍थानों को जागरूक और राष्‍ट्रोन्‍मुखी होना आवश्‍यक है। कि‍न्‍तु शैक्षि‍क संस्‍थाओं के अधि‍पति‍ बहादुरी के साथ उसे रसातल में ले जाने में लि‍प्‍त हैं। वि‍मर्शों की आड़ में छात्र-छात्राओं को ज्ञान-वि‍मुख करना और अपने अहंकार को तुष्‍ट करना उनका नैति‍क दायि‍त्‍व हो गया है। वि‍श्‍ववि‍द्यालयों में अब शोध के बजाए डि‍ग्री प्रमुख हो गई है। अध्‍यापक अब शोधार्थि‍यों को शोधोन्‍मुख करने के बदले अपनी आवभगत की ओर उन्‍मुख करते हैं। अब 'थि‍सि‍स फॉर डि‍ग्री' लि‍खी जाती है। वि‍श्‍ववि‍द्यालयी शि‍क्षा की इस बदहाली से वैज्ञानि‍क उन्‍नति, शैक्षि‍क वि‍कास और पारम्‍परि‍क धरोहरों का अनुरक्षण तो होने से रहा। सारा दोष अध्‍यापकों का ही नहीं है, शि‍क्षार्थि‍यों की ज्ञानवि‍मुख हरकतें भी कम उत्तरदायी नहीं है। परन्‍तु शि‍क्षक तो उस पर अंकुश लगा सकते हैं! मगर उसकी सम्‍भावना दि‍खती नहीं...।
आजकल अध्‍यापकों की बहुत नि‍न्‍दा होती है। वि‍मर्शवादी लोग ज्‍यादातर प्राचीन अध्‍यापकों पर आक्रमण करते हैं। शैक्षि‍क परम्‍परा में ऐसे आक्रमणों के सर्वाधि‍क शि‍कार द्रोणाचार्य होते हैं। गुरु-धर्म के नि‍र्वाह में उनके स्‍खलन पर बोलने वालों के मुँह में जीभ की जगह ज्‍वाला उत्‍पन्‍न हो जाती है। उनका वश चले, उनके पास कोई दैवीय शक्‍ति‍ आ जाए, तो वे रोज-रोज द्रोणाचार्य की आत्‍मा को परलोक से बुलाकर बेरहमी से उनका जि‍बह करें! क्‍योंकि‍ द्रोणाचार्य को ध्‍वस्‍तकर उन्‍हें अपना कद बढ़ाना है। भव्‍य इमारत का ऐश्‍वर्य मि‍टा दें, तो वहाँ झोपड़ी भी मकान लगने लगेगी। उनकी धारणा बनती है कि‍ गुरु के रूप में द्रोणाचार्य को लांछि‍त कर जि‍तने नीचे ले जाएँगे, छात्र-छात्राओं की नजर में उनकी छवि‍ उतनी ही उज्‍ज्‍वल होगी। वैसे वे चाहें तो द्रोण-नि‍न्‍दा कि‍ए बि‍ना भी शि‍ष्‍यों की नजर में अपनी पवि‍त्र छवि अंकि‍त कर सकते हैं। पर वे करते नहीं। इसमें उनकी दि‍लचस्‍पी नहीं है। अब वह दि‍न दूर नहीं कि द्रोण-नि‍न्‍दा शुरू करते ही छात्र-छात्राएँ कहेंगेगुरुजी, द्रोणाचार्य की करतबों से हमें कुछ लेना-देना नहीं है, हमें तो यह देखना है कि‍ आप हमारे साथ क्‍या कर रहे हैं?
इत्तफाक से भी कभी मेरी भेंट एकलव्‍य या द्रोणाचार्य या उनके कि‍सी नि‍कटवर्ती से नहीं हुई। अब तो होगी भी नहीं। इसलि‍ए उनसे तो पूछ नहीं सकता कि‍ आचार्य प्रवर! आपने एकलव्‍य का अँगूठा क्‍यों कटवाया? पर मैं इस बात से चि‍न्‍ति‍त अवश्‍य हूँ कि‍ इस देश के इतने बड़े ज्ञानी के आचरण में ऐसा स्‍खलन क्‍यों आया? वैसे उनके पक्ष में तर्क देने वाले ढेरो वीर इधर-उधर मि‍ल जाते हैं, जो सवर्णवादी वि‍चार से उनकी रक्षा करना चाहते हैं और कहते हैं कि चूँकि‍ एकलव्‍य ने अपनी धनुर्वि‍द्या का दुरुपयोग कुत्ते का मुँह बन्‍द करने के लि‍ए कि‍या था, जो धनुर्वि‍द्या की अवहेलना थी, इसलि‍ए द्रोणाचार्य ने सोचा होगा कि‍ जि‍स सम्‍पत्ति‍ का सम्मान करना मनुष्‍य न जाने, वह सम्‍पत्ति‍ उनके पास नहीं रहनी चाहि‍ए। कि‍न्‍तु यह दलील मुझे तर्कसंगत नहीं लगती। मेरी राय में द्रोणाचार्य के समर्थकों को उनके पक्ष में कोई युक्‍ति‍संगत तर्क जुटाना चाहि‍ए।
द्रोणाचार्य के बारे में सोचने पर अन्‍यत्र भी कई असुवि‍धाएँ होती हैं। शास्‍त्रकारों ने उनके आचरण का रेखाचि‍त्र इ‍स तरह पेश कि‍‍या है कि‍ पूरा पाठक-जगत् भ्रान्‍त (कन्‍फ्यूज्‍ड) है। वे समझ नहीं पाते कि‍ द्रोण को कि‍स तरह देखा जाए! देश के इतने बड़े ज्ञानी की बदहाली और वि‍पन्‍नता इतनी कि‍ उनकी पत्‍नी अश्‍वत्‍थमा को दूध के नाम पर आटे का घोल पि‍लाकर फुसला देती थीं। ज्ञानदान के प्रति‍ नैष्‍ठि‍क इतने कि‍ उन्‍होंने अपने बेटे से भी बेहतर ज्ञान अर्जुन को दि‍या। प्रति‍शोध की आग में झुलसे हुए इस तरह कि‍ जब तक अपने बाल-सखा को शि‍ष्‍यों द्वारा पराजि‍त करवाकर नतमस्‍तक नहीं करवाया, चैन की साँस नहीं ली। अब प्रति‍शोध की आग शान्‍त हो गई, तब तो पैंतरा बदल लेना चाहि‍ए था; पर नहीं, कृतज्ञता का भाव भी तो कुछ होता है! धर्म, राज-नि‍ष्‍ठा और ईमानदारी के लि‍ए प्रति‍बद्ध इतने कि‍ हस्‍ति‍नापुर के सम्‍मानार्थ अपने सर्वाधि‍क प्रि‍य शि‍ष्‍य के प्रति‍पक्ष में युद्ध कि‍या। नीति‍ और नि‍यमों की थोथी दलील से बँधे इस तरह कि‍ नि‍रन्‍तर कौरवों की तमाम दुर्नीति‍यों के सहयात्री बने। पुत्रमोह इतना अधि‍क कि‍ बेटे की मौत की खबर सुनकर बीच युद्ध में वि‍चलि‍त हो गए।...समग्रता में द्रोण का चरि‍त्रांकन एक दि‍ग्‍भ्रान्‍त बुद्धि‍जीवी के रूप में कि‍या गया है। अपने पूरे आचरण में वे कहीं मुकम्‍मल टि‍के हुए नहीं दि‍खते। थोड़ा-थोड़ा हर जगह दृढ़, थोड़ा-थोड़ा हर जगह समझौता परस्‍त...।
पर एक बात वि‍चारणीय है कि‍ देश के इतने बड़े गुणी, ऐसी आर्थि‍क दशा में जी रहे थे, कि‍ अपने बच्‍चे के लि‍ए छटाक भर दूध जुटाने में सक्षम नहीं थे। अभाव की इस पराकाष्‍ठा  से उनका आत्मविश्वास कि‍स हद तक टूटा रहता होगा! अपनी धनुर्वि‍द्या एवं युद्ध-कला को कि‍स तरह कोसते होंगे वे! बाल-सखा द्रुपद राजा थे, पर उन्‍होंने भी अपमान कर दि‍या। पर क्‍या एक ज्ञानी को मात्र इस कारण प्रति‍शोध की आग में इस तरह जलना चाहि‍ए था? प्रति‍शोध की ज्‍वाला ने उनके ज्ञान-वि‍वेक को कैसे पराजि‍त कर दि‍या? फि‍र उन्‍होंने ऐसा क्‍यों नहीं सोचा कि‍ द्रुपद उनके बाल-सखा बेशक रहे हों, पर उस समय तो वे राजा थे। उनसे मि‍लने गए, तो उन्‍होंने प्रजा-धर्म क्‍यों नहीं नि‍भाया? और, जब द्रोणाचार्य ने खुद प्रजा-धर्म नहीं नि‍भाया, तब द्रुपद के राज-धर्म नि‍भाने, या कि‍ मि‍त्र-धर्म न नि‍भाने पर उनको क्रोध क्‍यों आया, संयम ने उनका साहचर्य क्‍यों छोड़ दि‍या?
एकलव्‍य को धनुर्ज्ञान नहीं देने के लि‍ए वे मजबूर रहे होंगे; क्‍योंकि‍ बड़ी मुश्‍कि‍ल से जीवन में आई हुई सुवि‍धा छि‍न जा सकती थी। कोई राज्‍याश्रय प्राप्‍त गुरु कि‍सी भील को कैसे शि‍क्षा देते? कि‍न्‍तु गुरु-दक्षि‍णा में अँगूठा माँगने की उनकी क्‍या वि‍वशता रही होगी? एकलव्‍य ने कुत्ते का मुँह बन्‍द करने हेतु धनुर्वि‍द्या का दुरुपयोग बेशक कि‍या, कि‍न्‍तु उनके गुरुधर्म ने उन्‍हें उद्वेलि‍त क्‍यों नहीं कि‍या कि‍ जो बालक केवल गुरु-स्‍मरण और अभ्‍यास से इतना हासि‍ल कर लि‍या है, वह सि‍खाने-बताने पर धनुर्वि‍द्या का महत्त्‍व भी सीख जाएगा? आखि‍रकार शि‍क्षार्थी की लगन की पहचान तो उन्‍हें थी! तभी तो उन्‍होंने अर्जुन को अपने बेटे से अधि‍क योग्‍य माना!
अँगूठा-दान कराने के बाद एकलव्‍य के बारे में शास्‍त्रकारों की चि‍न्‍ता समाप्‍त हो गई;‍ बाद के के कि‍सी प्रसंग में उसका संज्ञान नहीं लि‍या गया। इस देश में इतने बड़े धनुर्धर का जन्‍म शायद कुत्ते का मुँह बन्‍द करने और अँगूठा-दान करने के लि‍ए ही हुआ था। पर चि‍न्‍ता का वि‍षय है कि‍ द्रोणाचार्य को ऐसी शंका क्‍यों नहीं हुई कि जि‍स एकलव्‍य ने अपनी लगन से इतना कुछ कर लि‍या, वह चाह ले तो तीर चलाते वक्‍त अँगूठा और तर्जनी का वि‍कल्‍प अपनी तर्जनी और मध्‍यमा (ऊँगली) को ही बना लेगा? शासकीय पदक्रम में एकलव्‍य बेशक अर्जुन का प्रति‍स्‍पर्द्धी न होता, उसकी बराबरी में न आता, पर वे चाहते तो उसके जैसे गुरुभक्‍त और लगनशील धनुर्धर को बाद में पाण्‍डुपुत्रों का सैनि‍क ही बना देते! मगर अँगूठा कटवाकर तो उन्‍होंने प्रति‍भा-लगन-अभ्‍यास के महत्त्‍व को नष्‍ट कर दि‍‍या! गुरु-गरि‍मा के इस स्‍खलन को शायद ही दुनि‍या का कोई तर्क नैति‍कता की दृष्‍टि‍ से मर्यादि‍त करने की चेष्‍टा करे! हस्‍ति‍नापुर के शैक्षि‍क, सांस्‍कृति‍क परि‍क्षेत्र में अन्‍यत्र भी उन्‍होंने कई समझौते कि‍ए। सम्‍भव है कि‍ उन समझौतों में उन्‍हें घनघोर द्वन्‍द्व और तनाव झेलने पड़े हों, पर क्‍या कभी उनके ज्ञान-बल या नैति‍क-बल ने उन्‍हें धि‍क्‍कारा नहीं?...
ढेरो सवाल हैं, गुरु द्रोण के चरि‍त्रांकन की यह भ्रान्‍त प्रक्रि‍या हर तर्कशील पाठक को उलझन में डाल देती है। पर उससे बड़ी उलझन पैदा करती है अत्‍याधुनि‍क द्रोण का आचरण, जि‍न्‍होंने पूरे शि‍क्षा-जगत् को कर्मनाशा नदी बना दि‍या है। द्रोणाचार्य के चरि‍त्र पर वे चाहें तो जि‍तनी मर्जी ऊँगली उठा लें, पर उससे पहले तनि‍क अपने गि‍रेबान में भी तो झाँकें! तथ्‍य है कि‍ प्राचीन द्रोणाचार्य अत्‍याधुनि‍क द्रोणाचार्यों की तरह कभी स्‍खलि‍त नहीं हुए। अपना महि‍मामय पद पाने के लि‍ए द्रोण ने कभी अन्‍यथा ति‍कड़म नहीं कि‍या, अपने ज्ञान-पराक्रम से पद-प्रति‍ष्‍ठा हासि‍ल की। द्रोण का चयन वि‍शेषज्ञों की मण्‍डली ने नहीं, उनके सम्‍भावि‍त शि‍ष्‍यों ने कि‍या था। बहाली की उस प्रक्रि‍या में कोई ति‍कड़म नहीं हुआ था। पर देश की पूरी शि‍क्षण-परम्‍परा को नेस्‍त-नाबूद कर रहे लोग भी द्रोण-नि‍न्‍दा में लि‍प्‍त हैं। उन्‍हें कभी उनकी शि‍क्षण-नि‍ष्‍ठा के समक्ष नत होने का बोध नहीं होता। अपने ऐश्‍वर्य और अहमन्‍यता का शीर्ष ऊँचा करने में लि‍प्‍त-तृप्‍त जो आचार्य आज देश के युवाओं के अकादेमि‍क वि‍कास को अवरुद्ध कर, शोध-शि‍क्षण प्रक्रि‍या को बदहाली की ओर धकेलकर प्राप्‍त पराक्रम का दुरुपयोग करते हैं, कभी उनकी जीभ नहीं लड़खड़ाती, कभी आँखें शर्म से नहीं झुकतीं। लाज ही एक वस्‍तु है, जि‍से त्‍याग दें, तो कहीं कोई दुवि‍धा नहीं होगी।
अब तक यही माना जाता रहा है कि‍ हर पराजय से मनुष्‍य आहत होता है, कि‍न्‍तु जब कभी अपनी सन्‍तान या शि‍ष्‍य से पराजि‍त होता है, उसे अपार प्रसन्‍ता होती है। क्‍योंकि‍ हर गुरु की शि‍क्षण-प्रक्रि‍या का वि‍धि‍वत् पल्‍लवन उनकी शि‍ष्‍य-परम्‍परा में होता है। हर गुरु अपने शि‍ष्‍यों के कृति‍-कर्मों में पुनर्जीवन पाता है। अपना परि‍चय देते हुए हर वक्‍तव्‍य में अर्जुन कहते थेमैं द्रोण-शि‍ष्‍य, कुन्‍ती-पुत्र अर्जुन हूँ। माँ से भी पहले गुरु का नाम लेते थे। कि‍न्‍तु आज के द्रोणाचार्यों को प्रति‍भावान, लगनशील और नि‍ष्‍ठावान शि‍ष्‍यों से बड़ी चि‍ढ़ होती है। वे वैसे शि‍ष्‍य-शि‍ष्‍याओं के आखेट में रहते हैं, जि‍नकी नि‍ष्‍ठा अध्‍यवसाय, शोध, राष्‍ट्रोत्‍थान, शैक्षि‍क नवान्‍मेष के बजाए गुरु के नि‍जी एजेण्‍डे, बौद्धि‍क-लैंगि‍क दुराचार से हों। जो शि‍ष्‍य-शि‍ष्‍याएँ उनकी इन लि‍प्‍साओं की मालि‍श न करें, वे उनके लि‍ए नि‍रर्थक होते हैं। उच्‍च शि‍क्षा में इस वक्‍त सर्वाधि‍क दुर्गति‍ तो छात्राओं की है, जो पूरे शैक्षणि‍क सत्र में श्‍वान-भय-त्रस्‍ता बकरी की तरह आशंकि‍त रहती हैं, न जाने कब उनका आखेट हो जाए! नीन्‍द से जागकर हर रोज खुद को बचा पाने की तरकीब सोचती हैं। कुछ बेहतर गुरु नि‍श्‍चय ही आज भी हैं, जि‍नके बूते देश की बची-खुची शि‍क्षा चल रही है, पर अध्‍ययन, अध्‍यापन, शोध, संगोष्‍ठी, बौद्धि‍क बहस, बहाली, प्रोन्‍नति‍ की जैसी रवायत चल पड़ी, उसमें राष्‍ट्र के बारे में नए सि‍रे से सोचने की जरूरत आन पड़ी है। आजकल नि‍र्णय लेकर बैठकों और चयन-प्रक्रि‍यओं का आयोजन होता है, ताकि‍ लि‍ए गए नि‍र्णयों को तर्कसम्‍मत साबि‍त कि‍या जाए। ज्ञान-वि‍मुख, राष्‍ट्र-नि‍रपेक्ष, स्‍वार्थोन्‍मुख शि‍क्षा की चपेट में भारत ऐसे समय में आ गया है, जब वैश्‍वि‍क प्रति‍स्‍पर्द्धा में देश को आगे आना है। मुझे नहीं मालूम कि‍ आज के द्रोणाचार्यों को यह भय क्‍यों नहीं होता कि‍ जब द्रोण जैसे पराक्रमी आचार्य की फजीहत करने से वे बाज नहीं आते, तो कल जब उनकी कुर्सी छि‍नेगी, उनका क्‍या हाल होगा?     

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